आज हर इंसान दबाव में जी रहा है…
विश्व के महान दार्शनिक अरस्तु के कथनानुसार “मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है” बिना समाज के मनुष्य पशु के समान है | बात बिल्कुल व्यावहारिक है, बिना समाज के उस मनुष्य का औचित्य हीं क्या है..? मनुष्य का जन्म समाज में होता है सबसे पहले उसका घर हीं उसका पहला समाज है जहाँ वह अपने हर बड़े से प्रतिदिन कुछ न कुछ नया सीखता है | धीरे-धीरे मनुष्य बड़ा होता है फिर उसका सामना अपने घर के बाहर पडोसी से होता है वहां से भी मनुष्य बहुत कुछ सीखता है | ऐसे हीं इन्सान बड़ा होता है तो बाहर के समाज में मिलता है |
समाज में रह कर हीं मनुष्य एक दुसरे मनुष्य के समूह से अपने जीवन में कुछ नया सीखता है अपने में बदलाव लाता है जो बदलाव उसे उसके जीवन में असम्भावित तरक्की या अवनति कराता है, निर्भर उसपर करता है कि वह मनुष्य किस समुदाय के समाज को अपनाता है या किस समूह के समाज से मिलना चाहता है | एक मनुष्य दुसरे मनुष्य के मिलन एवं पारस्परिक सहयोग से हीं आगे बढ़ता है |
किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व को उसके असली पहचान दिलाने में कई सारे व्यक्तियों, समूहों की अहम भूमिका होती है | जिसमे मनुष्य अपने अग्रज से सीखता है उसके कहे अनुसार अनुसरण करता है | फिर वह किसी संस्थान या किसी संगठन में रहने लायक बनता है और उस संस्था की नियम शर्तों के अनुसार अपनी कार्य शैली से इंसानों के बीच रहकर नित नए कार्यों की गति देता है | आज के इस भागदौर भरी जिन्दगी में हर एक इंसान किसी न किसी के दबाव में जी रहा है…
शुरू से हीं मनुष्य को किसी न किसी की बात मानने या अनुसरण करने की आदत पड जाती है, उसे हम आदत न कह कर जीवन-शैली कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी | समाज अपने जैसे हीं इन्सान को बनाता है या यूँ कहें कि इन्सान से हीं समाज बनता है चाहे वो आपका घर हो, पडोस हो, गाँव हो, विद्यालय हो, कोई संस्था हो सभी जगह मनुष्य अपने अनुरूप हीं मनुष्यों को जगह देता है | जहाँ इंसान को अपनी कार्यकुशलता और योग्यता के अनुसार समाज के लिए कुछ करने का अवसर मिलता है |
ऐसे वातावरण में रहकर मनुष्य एक दुसरे को समझने, उस माहौल के अनुसार रहने और वहां के परिस्थिति के मुताबिक कार्य करने का आदी हो जाता है | ऐसे में एक बात बड़ी सामान्य सी होती है वो है दबाव सहना | हम ऐसा क्यों कह रहे है गौर कीजियेगा-
हम जिस किसी भी समाज में रह रहे होते हैं हमे उस समुह से और उस समूह को मुझसे शांतिपूर्ण माहौल की अपेक्षा होती है ये मानवीय गुण है, या दुसरे शब्दों में कहें तो सफल व उद्देश्यपूर्ण जीवन व्यतीत करने का सरल मन्त्र | व्यवहारिक जीवन में देखें तो जब इन्सान बड़ा होता है तो अपने अगल- बगल, आस-पड़ोस के स्नेह-झिझक सहने को मिलते हैं | कुछ और बड़े होने पर विद्यालय जाना वहां अपने से बड़े मित्रों को देख मन में स्पर्धा जगना और उन्हें देख मन में एक उत्साह और तनाव आना ये सभी एक मनुष्य के स्वाभाविक रूप और सहज लक्षण हैं |
मनुष्य अपनी सफलता प्राप्ति के लिए कई प्रयास करते रहता है जिसमे उसे कई बार असफल होना पड़ता है फिर उस व्यक्ति का परिवार और समाज उस इंसान का उत्साहवर्धन करता है | ईश्वर की कृपा होती है सफलता हाथ लगती है | सफल हो जाने के बाद वह मनुष्य किसी संस्था में अपनी दैनिक कार्यों का सम्पादन उस संस्था में जुड़े सभी वरीय मनुष्यों जो अलग-अलग अहर्ताएं रखते हैं उनके साथ अपनी योग्यता और काबिलियत के अनुसार सामंजस्य बना कर योजनाबद्ध तरीका से उस संस्था का कार्य सम्पादित करता है | कुछ दिनों बाद उस इंसान के उपर धीरे-धीरे ढेर सारी जिम्मेदारियां आनी शुरू हो जाती हैं जिसका पूर्वानुमान उसे पहले कभी नहीं रहता है |
कभी-कभी उसे उसकी जिम्मेदारियां दु:सह सी लगने लगती हैं | अपने से वरीय से मनुष्य मदद लेना चाहता है पर पता चलता वो कहीं उससे अधिक जिम्मेदारीयों में उलझे पडा है | संस्था या समूह छोटा हो या बड़ा फर्क नहीं पड़ता लेकिन उससे जुड़े हर व्यक्ति को अपने से वरीय के दबाव में रहना पड़ता है | ये दबाव नहीं यही संघर्ष है जो हर मनुष्य को अपने जीवनकाल में करने पड़ते हैं कोई इसे सहर्ष स्वीकारता है तो कोई इससे दुःखी मन से करता है |
एकांत में ठंडे दिल से अगर हम सोचें तो पाएंगे कि समाज का एक अदना सा व्यक्ति से लेकर उच्च शिखर पर बैठा व्यक्ति तक अपने से वरीय के दबाव में हीं अपने उत्तरदायित्व का निर्वहन या तो सहर्ष या खीझ पूर्वक सम्पन्न कर रहा होता है | तब पता चलता है कि सिर्फ मुझपर हीं दबाव नहीं है सभी लोग जो किसी समाज से जुड़े हैं समाज के कार्यों और जिम्मेदारियों से दबे हुए हैं और उसे अपनी जीवन का एक हिसा मान चुके हैं |