इस दुनियां में जिसे देखो अधिकतर वो दु:खी हीं है | कारण इसका अस्तित्व में नहीं है और ना ही कहीं अन्य चीजों या किसी व्यक्ति विशेष में है | इसका कारण है मनुष्य का तौलने वाला मस्तिष्क | मनुष्य की प्रवृत्ति जो कि तुलना करने की है वहीँ उसे दुःखी करती है | जब तक हम तुलना करते रहते हैं हम तृप्त नहीं होते चाहे हमें कुछ भी प्राप्त हो जाए | जिस दिन से हम अपनी तुलना दूसरों से करना बंद कर देते हैं उस दिन से हमारे जीवन से दुःख दूर हो जाता है|

एक दिन एक फ़क़ीर से किसी ने उनकी इक्षा पूछा “ आप के जीवन में इतना आनन्द है मेरे जीवन में क्यों नहीं” तो उस फ़क़ीर ने जवाब दिया मैं अपने होने से हीं राजी हूँ | मेरी रजामंदी अपने होने से है | फिर वह फ़क़ीर अपनी कुटिया से उसे बाहर ले गया और सामने बाहर लगे हुए झाड दिखाये जिसमे से एक छोटा था दूसरा बड़ा | फिर वह फ़क़ीर बोला मैं इतने वर्षों से इन्हें देख रहा हूँ इन दोनो में कभी विवाद होते हुए नहीं देखा कि मै बड़ा तुं छोटा | बड़ा अपने बड़े में खुश है तो छोटा अपने छोटेपन में खुश है |

वास्तव में यह भेद डालता है हमारा मस्तिष्क | घास का एक पत्ता भी हवा में उसी आनन्द से हिलता डुलता है जिस आनन्द से देवदार का बड़ा वृक्ष डोलता है | तृणों के पुष्प और गुलाब के पुष्प के बीच आपस में कोई तुलना नहीं होती | विश्व में कितने खरबों लोग जन्म ले चुके हैं और आगे भी जन्म लेते रहेंगे उनमे सभी अद्वितीय रहे और रहेंगें | कोई भी एक दुसरे का एकदम सा फोटो कॉपी या कार्बन कॉपी नहीं हो सकते | अब अगर हम तौलेंगे तो कोई न कोई भिन्नता रहेगा हीं कोई कम रहेगा तो कोई ज्यादा | तौलने की प्रवृत्ति जब छूटती है जब आनन्द की स्थिति निर्मित होती है या आनन्द की स्थिति निर्मित हो जाती है तो तौलना बंद हो जाता है | आप अपने आप में सर्व शक्तिमान हैं कभी भी अपनी तुलना किसी दुसरे से ना करें | अपने अंदर हमेशा सकरात्मक सोंच को हीं जगह दें |

साभार : डॉ० वशिष्ठ तिवारी (आयुर्वेद रत्न), प्रयाग
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