उत्तम चिंतन हीं श्रेष्ठ कर्म का आधार है..

यह मानव मन हमेशा ही अपनी कमी एवं अवगुण को छिपाने का प्रयास करता रहता है यहां तक कि हम मानव अपने स्वरूप से अपने अंतःकरण से अर्थात अपनी आत्मा से भी अपने अपराध को छिपाने का प्रयास करते हैं जबकि इस प्रयास में श्रेष्ठ बौद्धिक वर्ग अधिक भागीदार है | वह झूठे प्रवचन और मिथ्या प्रलाप के द्वारा समाज से लेकर स्वयं के निजी अस्तित्व से भी छिपाने का प्रयास करता है और यहीं पर उसका चिंतन प्रदूषित होना प्रारंभ होता है | मन और अंतःकरण दोनों ही प्रदूषित हो जाता है | “मन ही कर्म का असली प्रेरक है” अतः दूषित मन या प्रदूषित विचार अर्थात प्रदूषित  चिंतन हमें हमेशा गंदे कार्यों में लिप्त करते जाते हैं |

हम बेईमानी, जालसाजी, धोखाधड़ी और ऐसे ही निम्न स्तरीय कार्य को हम अपनी कार्यप्रणाली का अंग बना लेते हैं | इसके बाद कैसे भी रहें हम अपने आप को अपराध बोध से भी मुक्त कर लेते हैं परिणामत: “हमारा प्रदूषित चिंतन कुकृत्य कर्म का आधार बन जाता है” क्योंकि चिंतन ही कर्म का आधार है उत्तम चिंतन के बल पर ही हम श्रेष्ठ कर्म कर सकते हैं | सही मायने में देखा जाए तो आध्यात्मिक जीवन और व्यवहारिक जीवन एक दूसरे के पूरक हैं |  शुद्ध और परिपक्व तथा पवित्र व्यवहारिक जीवन ही आध्यात्मिक जीवन का परिचायक है | इसी तरह पूर्वाग्रह रहित साक्ष्य पूर्ण आध्यात्मिक चिंतन और कर्म पवित्र व्यवहारिक जीवन है | सच्चा कर्मयोगी अपने श्रेष्ठ मनोयोग के माध्यम से प्रकृति के मूल अस्तित्व अर्थात शाश्वत सत्य के समक्ष अपने आत्मा को ही साक्षी स्वरूप प्रस्तुत करके जब अपने व्यवहारी कर्मों का लेखा जोखा प्रस्तुत करता है | अपने आत्मा के साक्ष्य भाव में ही अपने कुकृत्य के लिए अपराध बोध करता है तथा अच्छे कर्मों को आत्मा के सही मार्गदर्शन का परिणाम स्वीकार करता है |

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अपराध बोध के साथ जब पवित्र आत्मा से अपने अपराध को स्वीकार करता है तो निश्चित ही अहंकार रहित निर्मल और पवित्र मन और उत्तम चिंतन वाला बन जाता है | उसके अंतःकरण में उत्तम विचार स्थाई रूप से बस जाते हैं तथा स्पष्ट तौर पर साक्षी भाव में विद्यमान आत्मा भी व्यावहारिक जीवन में हमें मार्गदर्शन करती है जिससे हम सभी आध्यात्मिक चिंतन से मार्गदर्शित होकर एक श्रेष्ठ कर्मयोगी बन जाते हैं और तब पवित्र कर्म में संलग्न मानव सफल आध्यात्मिक के रूप में अपने कर्मों में ध्यान और समाधि की महान आध्यात्मिक यात्रा को पूरा कर लेता है लेकिन आज भौतिक वर्ग का एक तबका अध्यात्म के नाम पर केवल झूठा प्रलाप तथा अपने ओछे और अहंकार पूर्ण चिंतन से परिपूर्ण होकर आध्यात्मिक जीवन के नाम पर ढोंग और कालनेमि की भांति झूठा प्रपंच करता है |

अध्यात्म और अहंकार एक साथ नहीं रह सकते जब तक हम जाति तथा झूठे प्रमाद से परिपूर्ण होकर अपनी महान आत्मा (ईश्वर का ही व्यष्टि रूप) झुठलाने का प्रयास करते रहेंगे तब तक ईश्वरीय चिंतन से कोसों दूर रहेंगे | अहंकार जातीय प्रमाद तथा झूठा आध्यात्मिक प्रलाप कभी भी आत्मा को साक्ष्य भाव में स्वीकार नहीं कर सकता जिससे हमारा चिंतन उत्तम नहीं बन पाता और मानव होकर भी पशुवत हो जाते हैं तथा श्रेष्ठ कर्म से वंचित रहते हैं |

******हे इश्वर तेरी इक्षा पूर्ण हो*****

प्रोफेसर पी० के० उपाध्याय (इंदिरा गाँधी शिवनाथ सिंह कॉलेज कुचायकोट, गोपालगंज )
एम० ए०, बी० एड०

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