• ईश्वर सर्वव्यापी दिव्य चेतना को कहते हैं जो श्रेष्ठता के रूप में मानव अंतःकरण को विकसित करती है |
  •  सारा विश्व भगवान का रूप है भगवान भक्त का वेश नहीं अंतःकरण देखता है |
  •  मनुष्य ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना है, सब प्राणियों में भगवान है |
  • भगवान भाव देखते हैं जाति नहीं परिष्कृत आत्मा ही परमात्मा है |
  • ईश्वर उपासना एक आवश्यक धर्म कर्तव्य है, कर्तव्य शील मनुष्य ही धार्मिक है |
  •  सत्कर्मपरायण आत्माएं परमात्मा के ही समतुल्य है |
  • भावपूर्ण प्रार्थना निरर्थक नहीं होती |
  • आत्मा को परमात्मा बनने की प्रेरणा उपासना से मिलती है |
  • परमात्मा स्वार्थ का नहीं परमार्थ का समर्थक है |
  • शुभ आचरणों की ओर लगाव होना ही ईश्वर कृपा है |
  • भगवान को धोखा नहीं दिया जा सकता |
  • निर्मल हृदय में ही भगवान का बोध होता है |
  • आत्मा का शाश्वत गुण आनंद है |
  • भगवान जाति-पाती को नहीं श्रद्धा, कर्म और भाव देखते हैं |
  • संसार के दोष बाद में पहले अपना दोष देखें |
  • प्रयत्न करते रहने पर सफलता मिलती ही है |
  • संसार का मूल्यवान धन सद्बुद्धि है |
  • मनुष्य जीवन कर्म प्रधान है भाग्य भी कर्म का ही प्रतिफल है |
  • कर्म फलवती तभी होगा जब भाग्य में लिखा होगा
  • भगवान भी हमें कर्मफल भोग से छुटकारा नहीं दिला सकते |
  • भगवान को श्रेष्ठ वस्तुओं की नहीं श्रेष्ठ भावनाओं की इच्छा होती है |
  • ईश्वर दिव्य चेतना है | अतः उसे सद्गुणों और सत्प्रवृत्तियों के रूप में देखा जा सकता है |
  • तप का अर्थ शरीर को तपाना नहीं, यातनाएं देना नहीं वरन श्रेष्ठ जीवन क्रम अपनाना है |
  • ईश्वर की कृपा और जीव का पुरुषार्थ मिलकर असंभव कार्य को संभव बना देता है |
  • ह्रदय में शुद्ध भावना रखकर ही भगवान का अनुभव किया जा सकता है |
  • ईश्वर उन्हीं की सहायता करता है जो अपनी सहायता खुद करते हैं |
  • परमात्मा को प्राप्त करने और प्रसन्न रखने का मार्ग उनकी नियमों पर चलना है |
  •  ध्यान का अर्थ मात्र एकाग्रता ही नहीं श्रेष्ठ विचारों की तन्मयता भी है |