विधाता का विधान बड़ा हीं विचित्र है, मैं राम की सीता कहूँ या सीता के राम कहूँ | समझ में नहीं आता ! आइए जरा दृष्टिपात करें…!
श्री राम का जन्म होता है चक्रवर्ती सम्राट राजा दशरथ के आँगन अयोध्या में, सीता का जन्म होता है विदेह राजा जनक के राजमहल मिथिला में, राम विद्या अध्ययन हेतु गुरुकुल जाते हैं |
“गुरु गृह गए रघुराई, अल्प काल विद्या सब पाई”
बहुत हीं अल्प समय में शिक्षा पूर्ण होते हीं विश्वामित्र मुनि द्वारा मुनियों के यज्ञ कार्य हेतु अयोध्या छोडवाना, मुनियों के यज्ञ पुरा करवाने के क्रम में मुनि विश्वामित्र को राजा जनक का आमंत्रण पा लखन के साथ राम का मिथिला आगमन राजा जनक के पुष्प वाटिका में पुष्प चुनने हेतु राम-लखन का वाटिका में जाना और इधर जनक नंदिनी जानकी का सखियों के साथ गौरी पूजन हेतु पुष्प चुनने पुष्प वाटिका में जाना तथा श्री राम की लुभावनी छवि का मन में उतर जाना |
“तेहि अवसर सीता तंह आईं, गिरिजा पूजन जननी पठाईं “
“पूजा कीन्ह अधिक अनुरागा नीज अनुरूप सुभग बरु माँगा”
अब एक बात आती है कि पुरानी प्रीति, दुश्मनी को कोई लख नहीं पाता और कालांतर में प्रकट हो हीं जाता है | नारद जी के वचनों का स्मरण आते हीं पवित्र प्रीति उत्पन्न हो जाती है सीता के मन में और इधर-
“देखि सीय शोभा सुखु पावा, ह्रदय सराहत बचनु न आवा“
श्री राम जी के में सीता जी की शोभा देखकर, उनकी छवि निहार कर मुख से वचन नहीं निकलते उनकी शोभा सुन्दरता को भी सुन्दर करने वाली है और भाई लखन लाल से पूछ बैठते हैं कि.. क्या यह वही जनक नंदिनी जानकी है जिसके लिए राजा जनक ने धनुष यज्ञ रचा है, सखियाँ इन्हें गौरी पूजन के लिए लाई हैं जिसकी अलौकिक छटा देख कर स्वभाव से हीं पवित्र मन मेरा विचलित हो रहा है | श्री राम कहते हैं उनका पवित्र मन कुमार्ग पर पड़ा ही नही, अपने मन पर पुरा विश्वास है कि कभी भी पराई स्त्री पर दृष्टि गयी हीं नहीं |
इधर श्री जानकी जी चकित होकर चारो ओर देखती हैं कि वो छवि, जिसे मैंने अभी-अभी थोरी देर पहले दर्शन किया है वो किधर गयी, क्या इसे मेरे अलावे मेरे इस कृत को किसी और ने तो नहीं देखा..? वह सकुचाई, शरमाई सी आगे किये बढती भी हैं और मन में उस छवि को निहारते हुए खोजती भी हैं |
इस मिलन की इक्षा सामान भाव से जागृत हो उठी है, दुसरे दिन धनुष यज्ञ मंडप में उतने बलसाली राजाओं से धनुष का टूटना तो दूर, हिलने से भी रहा | इतना हीं नहीं दस हजार राजा मिलकर उठाना चाहे वो भी असम्भव हुआ…! शिव धनुष तो राम के लिए हीं प्रतीक्षारत है |
शिव धनुष भी खोज रहा है सिर्फ और सिर्फ एक वीर-धीर, छैल-छबीला बर को सीता वरन हेतु और वो है- “श्री राम” | श्री राम के आते ही धनुष का भार एकदम से पुष्प के भार में बदल जाना, धनुष का वैसा टूटना जैसे कि बालक खेल-खेल में किसी तिनके को किसी आकार में बनाकर अक्सरहां तोड़ फोड़ करते रहते हैं |
“ लेत चढ़ावत खेंचत गाढे, काहूँ न देख सब ठाड़े “
“तेहि छान राम मध्य धनु तोरा, भरे भुवन धुनी घोर कठोरा’’
धनुष यज्ञ में भाग ले धनुष भंग कर जनक दुलारी जानकी का पाणिग्रहण कर राम अयोध्या आते हैं तो कुछ ही काल के बाद विधाता जानकी को मंथरा और कैकई के माध्यम से राम के साथ बनवास की तैयारी कराता है और वह भी कुछ ही समय व्यतीत होने के बाद श्री सीता जी लंका पति रावण के राज्य लंका में जा पहुंचती है जहाँ अपना समय राम के ही याद में एक-एक पल बिताती है और हमेशा राम की ही छवि अपने मन में निहारती है |
रावण के त्रास देने पर सीता जी रामचंद्र जी को सूर्य और रावण को जुगनू बनाती है | वो कहती हैं कि अरे दुष्ट तुझे राम की बाणों का ध्यान नहीं..? राम से अलग रहकर श्री सीता जी राम से दूर नहीं है हर पल राम के ही चिंतन मनन में बीत रहा है |
इधर राम सीता से अलग हैं, फिर भी हर समय सीता की याद उन्हें चिंतित कर रही है श्रीराम हमेशा प्रयासरत हैं कि मैं कैसे सीता का पता लगाऊँ, उसे पुनः पाऊं और उस युक्ति के लिए प्रयत्नशील हैं |
इधर हम पाते हैं कि जितनी लालसा श्रीराम के मन में जनक दुलारी सीता के लिए है उससे कहीं अधिक श्री सीता जी की |
जनक दुलारी जानकी के मुख से वचन नहीं निकलते, नेत्रों में विरह की जल भरे हैं, श्रीराम तो कोमल हृदय और कृपालु हैं फिर ऐसी कौन सी भूल मुझसे हुई है जिससे मेरे प्रति इतने निष्ठुर हो गए हैं | कहने का तात्पर्य है जितनी आतुरता राम के लिए सीता के मन में है उससे कहीं अधिक हीं व्याकुलता सीता के लिए राम के मन में है |
राम एक क्षण भी सीता को दूर नहीं देखती और सीता भी राम को एक पल भी नहीं देखती | यह कहना और समझना कि राम के सीता हैं या सीता के राम हैं, बड़ा ही कठिन है | हमें लगता है जैसे जीव के बिना जीवधारी नहीं हो सकता और जीवधारी के बिना जीव नहीं हो सकता ठीक उसी प्रकार यह एक दूसरे के बिना सर्वथा असंभव है |
……………………………. जय जय सियाराम………………………………..
साभार : डॉ० वशिष्ठ तिवारी (आयुर्वेद रत्न) प्रयाग
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